गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

क्षणिकाएं !!

खामोश आफ़ताब 
और ये ख़ुश्क़ पत्ते 
ठहरी सबा खोयी बया
ये समां क्या कह गयी चलते-चलते ????? 


तुझे ये गिला.... कि तुझे भुला दिया
तुझे ये भरम....कि ख़ुशी को हमसफ़र बना लिया 
तुझे क्या पता......... तुझे क्या ख़बर
तेरी कमी ने मुझे.... ये कौन सा मुकाम दिला दिया



बंद पलकों तले कितने चेहरों कि अठखेलियां हैं 
कमबख्त जो आंखों में पलती थी वो नींद कहां है ????
ए दरख्त तेरी शाख पर परिदों का बसेरा है 
वो जिसे घनी छावं कहते हैं वो छावं कहां है ????
रेत के सेहरा में चुभती सी ठण्ड और बड़ी जलन है 
ठहर जाऊं पल भर को जहा वो ज़मी वो फलक कहाँ है ????


मन दुआओं से भरा था 
एक एक ख्वाब जो मैंने
तुम सब के लिए बुना था 
देखा जो मैंने मुड़कर 
टूटते हर ख्वाब के संग 
मैं भी टूटी और अक्स अब भी
मेरा उसी टूटे आईने में टुटा पड़ा था



दर्द-ए-दिल जब सताए ग़ज़ल बन मुस्कुराये 
ज़ख़्म ज़ख़्म खिल जाए हार्फ हार्फ जगमगाये 
अज़नबी के छालों को देख दर्द ज़िगर में उठ आये 
मासूमियत कि इंतहा कातिल के हाथ चूम दुआ दे आये 
जाने कैसे-कैसे किस किस से ये ख़ामोशी से रिश्ता निभा जाये
..........................दर्द-ए-दिल जब सताए ग़ज़ल बन मुस्कुराये 



ए ख़ामोशी थाम ले मुझे ..............
हवा का रुख़ फिर तेज़ हो रहा है ........
खुद को खो दूँ न मैं .............
आहटों में ये कौन अब आहट दे रहा है ...........
दफ़न कर आये थे खुद को कब्र में ......
ये कौन आकर मेरे मज़ार के फूल चुरा रहा है ..................



कितने भूले चेहरे अब भी याद आते हैं 
कुछ गर्द में नहा गए कुछ अब भी मुस्कुराते हैं 
वक़्त के आकाश में कितने रंग उड़ गए 
हर रंग के वो फ़साने अब भी बहुत याद आते हैं



कुहरे कि चादर में लिपटी हुयी सुबह 
ठंडी ठंडी मंद मंद बहती हुयी सबा 
पत्तों पर ठहरी हुयी शबनम कि बूंदें 
इतने हसीं नज़ारे हैं कैसे कोई पलके मूंदे 

सारा






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