बुधवार, 6 जून 2012

निश्छल प्रेम ............!!!



ये रात के सन्नाटें जिनमे हैं अपनी ही बाँतें
तेरे निश्छल प्रेम ने मेरे सुख दुःख हैं बांटे


जब भी सोचने बैठूं तुमको जाने क्यों बह जाती है ये आँखें
किन जन्मो का हिसाब है ये किन धागों से है गए हम बाँधें
नीदों में भी हमने हैं तुमसे जीवन क़े हर रफ़्तार हैं बांटें


तुम पर प्यार लुटा दूँ तुमसे ही चाहूँ प्यार की अनमोल सौगातें
मासूम वक़्त में साथ चलने  के कुछ  वादे और वो कोमल इरादें
चांदनी की इस मद्धिम प्रकाश में पायीं हैं हमने ऋतुओं की बरसातें


शाम ढले आँगन क़े नीम  छावं में  चिड़ियों  की  चूँ चूँ करती आवाजें
एक पल दिल को छूती दूजे पल दूर कंही उड़ जाती लेकर अपनी बाँतें
बाट जोहती लौटने की दरवाज़े पर टक टक करती ये सूखी आँखें


जब तुम आते अल्हड सी बलखाती नदिया सी मै भी तुमसे मिलने आती
बेखबर हो शब्-ओ-सुबह तेरी याद में तेरी  बात में दिन रैन बिताती
बरसो-बरस तेरे आने  पर निश्छल मन से तुम पर सारा प्यार लुटाती

 ..............................सारा

कांटे ही कांटे.... !!

कैसी  है  ये  हवा  लहराई
संग  अपने  आँखें  भर  लाई


न  कभी  बचपन  से मिली न कभी तेरी याद आई
एक और चोट खाई जो दुल्हन बन के उस चौखट  पे आई
ख़ुशी से कभी नाता न जुड़ा गम के पहलु में जिन्दगी बिताई




नए  रंग-ए-गम पाए हमने जो बाग़ अपना सवारने आई
कांटे  ही  कांटे  मिले  मुझे  राह  में  जो  दो  कदम  मैं   आगे  बढ़ाने आई
क्या  जानू  मै  दुनिया  की  रवायतें  दर्द  के  पहलु  में  जो  हयात  बीताई


सारा

नन्ही नन्ही आँखों के ..........!!



नन्ही  नन्ही आँखों के वो नन्हे से ख्वाब सुनहरे थे
कुछ बिखरे कुछ सवरे जो भी थे वो थे मेरे अपने थे


नन्हे से घरोंदें में तेरे मेरे ही दिन रात के बसेरे थे
बाग़ में अपने खिलते दो फूलों के प्यारे से घेरे थे
हर रुत में लगते अपने  ही प्यार  के मेले थे


वक़्त का बदला रुख देश में ही कहलाते परदेशी थे
जिनको आती थी शर्म हम पर आज वो मेरे अपने थे
हँसते गाते तंहा अपने ही घरोंदे में ख़ामोशी से रहते थे


एक रोज़ ख़ामोशी को तंज़ दे  परियों से बांते करते थे
वो मेरी रांहे तकते थे हम बेसबब इंतज़ार उनका करते थे
लम्हे सुनहरे ख्वाब रुपहले थे  वो दिन भी कितने अच्छे थे


खुशियों से लबरेज़  हवा में हाथों में हाथ लिए उड़ते थे
कुछ गुज़रे दिन की बांते कुछ आने वाले पल के सपने थे
दर्दीले  खट्टे मीठे जीवन के गुज़रे दिन कितने सच्चे थे


...............................सारा

ख़ता क्या मेरी .....!!!!!




ए  खुदा  छलकती  आँखों  को  पत्थर  कर  दे

सुलगते  हुए  दिल  के  हर  जज़्बात  को  सुपुर्द -ए -खाक  कर  दे
जो  भी  किया  है  दरकार  तुझसे  या  रब  उसे  मेरी  नज़र  कर  दे
जलते  हुए  अरमानो  को  दफ़न  कर  दे  या  उसे  उसकी  हवा  कर  दे 




जिंदगी  यूँ  ही  जलती  रही  है  उसके ख्यालों  की  थोड़ी  सी  बरसात  कर  दे 

मेरे  अजीजों  के   तोहफा  -ए  -ज़ख़्म  को  उसकी   मासूम  ज़ज्बातों  का  मरहम  कर  दे
ग़र  चाहे  तू  ए  खुदा  मेरी  जान  ले   उसकी  जान  ताउम्र  महफूज़  कर  दे 

ख़ता  क्या  मेरी  ख़बर  नहीं  सज़ा  दी  है  तूने  इतनी  दो  चार   की  सौगात  और  कर   दे




आँखों  की  झिलमिलाहट  में  धुधला  अक्स  है  उसका   उसे  मेरा  दरकार  कर  दे 

गुज़रे  लम्हों  के  इक-इक  पल  को  मेरे  यादों  के  दयार  में  महफूज़  कर  दे
महरूम  हुआ  है  जो एक-एक   पल  हर एक   पल  को  मेरे  दामन  का  फ़ूल  कर  दे 

फ़ीकी  फ़ीकी  फ़िज़ा  उजड़ा  उजड़ा  दिल  का  चमन  या  खुदा  भेज  के  उसको  महफ़िल  रंगीन  कर  दे






इल्म  है  मुझको  भी  तलकी -ए -होश  का  उसका  एक  झूठा  वादा  ही  मेरा  पयाम  कर  दे

इक  पल  को  खिल  जाउंगी   एक  पल  को  सवर  जाउंगी   जीस्त  अपनी  ही   है  इसे  अपनी  ही  नज़र  कर  दे
उसका  हर  हार्फ़   अब  दिल  के  सफे  पर  लिखा  मिलता  है  उसे  मिटा  दे  या  उसका  रंग  शोख  कर  दे 
बांधा  है जिन  कच्चे  धागों  में  उसे  तोड़  दे   या  उसे  भेज  के  ये  रिश्ता  मज़बूत  कर  दे


सारा 

ठहरा है जाना उसका ..............!!!




यूँ  लम्हा  दर  लम्हा  दिन  गुज़र   रहा  है
वक़्त  का  क्या  है  रेत  सा  मुठ्ठी  से  सरक  रहा  है
कंहा  खोये  हो  तुम  मेरी  हर  याद  में  तुमसा  ही  कोई   महक  रहा  है
जाने  क्यों  ऐसा  लगता  है  तुम्हारे  ज़ेहन  से  मेरी  यादों  का  काफिला  गुज़र   रहा  है


एक  वो  पल  ठहर  सा  गया  है  या  मेरी  यादों  की  सिलवटों  में  कुछ   उलझ  रहा   है
जब  भी  सुलझाऊँ उलझनों  को  मेरी  ख्यालों  के  दयार  में  तू  ही  तू  आ  के  बस  रहा  है
शब् -ए -स्याह  क्या   है  सेहर -ए - नूर  क्या  अब  इल्म  नहीं  जाने  किस  खार   में  अब  दिल  उलझ   रहा  है
आँखों  की  कोरों  में   ठहरी  है  नमी  उसकी  ही  वो  सावन  की  फुहारों  सा  ताजगी  दे  रहा  है


हलक  में  ठहरा  है  जाना  उसका  दूर  होकर  भी  वो  मेरी  मोहब्बत  को  उम्र  दे  रहा  है
ले  गया  है  साथ  वो  अपने  मेरा  सब्र -ओ -करार  भी  लफ्ज़  नहीं  कहूँ  क्या  दिन  कैसे  गुज़र  रहा  है
तन्हाई  के  इस  सफ़र  में  ख्वाबो -ख्यालों  की  महफ़िल  में  आकर  वो  न   जाने  कैसा  नूर  भर  रहा  है
ज़ेहन  आबाद  हो  रहा  है  बीते  लम्हों  से  वो  पलकों  की  मोती  बन  हथेलिओं  पर  गिर  के  बिखर  रहा  है

 सारा

ठहरा है जाना उसका ..............!!!




यूँ  लम्हा  दर  लम्हा  दिन  गुज़र   रहा  है
वक़्त  का  क्या  है  रेत  सा  मुठ्ठी  से  सरक  रहा  है
कंहा  खोये  हो  तुम  मेरी  हर  याद  में  तुमसा  ही  कोई   महक  रहा  है
जाने  क्यों  ऐसा  लगता  है  तुम्हारे  ज़ेहन  से  मेरी  यादों  का  काफिला  गुज़र   रहा  है


एक  वो  पल  ठहर  सा  गया  है  या  मेरी  यादों  की  सिलवटों  में  कुछ   उलझ  रहा   है
जब  भी  सुलझाऊँ उलझनों  को  मेरी  ख्यालों  के  दयार  में  तू  ही  तू  आ  के  बस  रहा  है
शब् -ए -स्याह  क्या   है  सेहर -ए - नूर  क्या  अब  इल्म  नहीं  जाने  किस  खार   में  अब  दिल  उलझ   रहा  है
आँखों  की  कोरों  में   ठहरी  है  नमी  उसकी  ही  वो  सावन  की  फुहारों  सा  ताजगी  दे  रहा  है


हलक  में  ठहरा  है  जाना  उसका  दूर  होकर  भी  वो  मेरी  मोहब्बत  को  उम्र  दे  रहा  है
ले  गया  है  साथ  वो  अपने  मेरा  सब्र -ओ -करार  भी  लफ्ज़  नहीं  कहूँ  क्या  दिन  कैसे  गुज़र  रहा  है
तन्हाई  के  इस  सफ़र  में  ख्वाबो -ख्यालों  की  महफ़िल  में  आकर  वो  न   जाने  कैसा  नूर  भर  रहा  है
ज़ेहन  आबाद  हो  रहा  है  बीते  लम्हों  से  वो  पलकों  की  मोती  बन  हथेलिओं  पर  गिर  के  बिखर  रहा  है

 सारा

साज़-ए-जिंदगी बजाएं कैसे.............!!!


जिन्दगी इतनी हसीं है तो इसे दिल के सफे पे सजाएं कैसे
जब दिल रोये तो होठों पर मुस्कराहट बिछाएं कैसे
हज़ार तूफ़ान हो दिल में तो सुकून से नाता निभाए कैसे
शबनम की बूंद ठहरती है कंहा उसे फूलों के बीच छुपायें कैसे



हाल-ए-दिल भी अजीब है इसे छुपायें कैसे बताएं कैसे
खैरियत तो उसकी मिल जाती है सपनों में भी पर इस दिल को समझाएं कैसे
बदला बदला सा है वो भी कुछ समझ  ये हम उसे समझाएं कैसे
ज़ख़्म गहरे हैं उसके अनजान नहीं हम इस मर्म का उसे एहसास दिलाएं कैसे



रब देता रहा सलामती उसकी किस्तों में रात तड़पती रही उसे सुलाएं कैसे
दुनिया की भीड़ में वो मुझे क्यों मिला ये सवाल अब सुलझाएं कैसे
काफिला दिल का था सुकून से गुजरने को वो राह में ऐसे मिला क़ि अमन की बस्ती बसायें कैसे
हज़ार सवालो से घिरा दिल बस ये एक सवाल करने का अब हौसला लायें कैसे



चुपके से जाना उसका और दबे पावँ आना उसका निशाँ इस दिल पे उसे दीखाएं कैसे
वो ज़ख्मो की तीमारदारी में हम लाचार मरहम लिए इस दिल पर फिर ज़ख़्म खाए कैसे
निशाँ जो पड़े हैं राह में सजदे करती हूँ या रब! उससे अब रुखसती की रस्म निभाए कैसे
जार-जार हुआ है दिल का तार भी अब इन टूटे अल्फाजों से नगमो को सजाए और साज़-ए-जिंदगी बजाएं कैसे

सारा

मिली सज़ा.................!

क्यों दो पल भी बहार ठहरी नहीं घड़ी आ गई तेरे जाने की
ख़ता मेरी कुछ भी नहीं फिर भी मिली सज़ा दस्तूर निभाने की
आदत कैसी अपनी मासूम सी हर कहानी तुझे सुनाने की
लौट रही हूँ अब मैं भी दे के दुआ तुझे ताउम्र सलामत रहे अदा तेरी मुस्कुराने की




न चाह तुझसे  मिलने  की ना चाह  तुझ  से  कुछ भी पाने  की
तड़प  रह  गई है बस अब तेरे होठों  पर मुस्कराहट  बिछाने की
गम  दिए है हमने तुझको  बहुत  अरमान  हैं  बस उसे  समेट लाने  की
कतरा  भी अश्क  का जो  तेरी आँखों  में  आया  तो  इधर  समंदर  बहाने  की


गुनाहगार  सी लगती  है जिंदगी अपनी चाह नहीं अब कुछ भी तुझसे जताने  की
अरमान जलें  या  बर्फ  की ठंडी  आँहों  तले रहें  भूल  गई मैं  हर अदा  सताने  की
तुम बिन  दिन  कैसे ढला  कैसे बीती रात   नहीं बची  अब बात  कुछ तुझसे कह जाने की
ज़ख्मो  को सीने  में ही दफ़न  कर  दिया अब नहीं बाकी कोई दस्तूर-ए-रस्म निभाने की


जलता दिया हूँ मैं  अपने ही मज़ार की करूँ क्या रोशन अब कोई और दयार  जहां की
समेट  लिया  है हमने अपने दामन को भी नहीं रही चाह भी अब किसी और दुआ-बद्दुआ की
तकदीर का फ़साना है जन्मो तक निभाना है फिर दरमियाँ जगह कंहा किसी नशात की
'तुम' लौट आओ अब तेरे काँधे पर सर रख पहले सी मुझे चाह हो रही है बस रोते जाने  की

-----सारा

गीली सी नूर की बूंदें !!

गीली सी नूर की बूंदें भी धुंधला अक्स तेरा ही निहारा करती हैं
शब्-ए-तसव्वुर में और शाम-ए-बज़्म में तेरी ही बातें हुआ करती  हैं 
तिनकों  के  इस  घरोंदें  में  कच्ची-पक्की कुछ यादें  सजी  रहती  हैं
वक़्त के इस घनेरे जंगल में तेरे ही ख्वाबों के जुगनू चमका  करते  हैं



ये मखमली अँधेरे अज़ीज़ हुए हैं हमे चांदनी तुझको नज़र करते हैं
गरीब की झोली में दुआवों के सिवा क्या हवाओं के हाथ तेरे नाम किया करते हैं
वक़्त का ये खंज़र दिल पर यूँ नश्तर चलाता है मुस्कुराते लबों पर खमोशी  बसेरा करते हैं
हाथों में हाथ लिए जब राहों पर हम साथ होते है दरमियान हमारे आप ही आप आ बसते हैं



पौ फूटती है जब किरणों की एक नई उम्मीद से लबरेज़ नादान दिल सौ अरमान सजोते हैं  
शब् भर जलती शमा के बुझते लव के साथ हर उम्मीद की किरण भी दम अपना तोड़ जाती है
गए दिनों को खबर कंहा मेरी  ना-उम्मीद थे जिनसे ही पहलु में उनकी ही राह मेरे अब जाते हैं 
कुछ लम्हात हम भी गुम रहेंगे किसी जहां में तलाश में न जाने क्यों वो बीते जुगनू चले आते हैं



तुम भी गुम अपनी दुनिया में हमने भी चुन ली  है राह जो उजड़े चमन की ओर जाते हैं
बरसों से नाता नहीं रहा जिससे कदम मजबूर ही सही थम-थम के उसी ओर आगे बढते जाते हैं
खुशबू यंही कंही रह जाएगी मेरी हम तो मुरझाये गुलो से दरो दीवार उनका सजाने को अब चलते जाते हैं
या रब ! क्या लिखा है तूने तकदीर में मेरी खमोशी और ये जलते अंगारे शौक़ से अब हम भी राही उसी राह के हुए जाते हैं


-------------सारा

मेरे अलफ़ाज़ !!!!

कुछ सादे पन्नो को देख खुद को रोक नही पाई और जो मन में भाव आये लिख डाले !!!


जब  भी  मिलती  हूँ  तुझसे  ए  कोरे  कागज़  मेरे  अलफ़ाज़  छलक  ही  जाते  हैं
दिल  के  कोने  में  जो  छुपे  रहतें  हैं  जज़्बात  तुझ  पर  बिखर  ही  जाते  हैं
मेरी  शोखियाँ  मेरी  ही  शरारत   रुत -ए-बहार  बन  रुखसार  पर  झलक  ही  आते  हैं
गाहे-गाहे  तहे  मन  के  मौजे  बहार  बन   अरसा -ए -आलम (whole word) पर  छा ही  जाते  हैं



जब  भी  हुआ  जिस्म  मेरा  खास्तापा (tired) कोई  न  कोई  मुकाम  राह  आ  ही  जाते  हैं
जब  भी  किया  किसी  से  कतरे  भर  क़ि  उम्मीद  वो  तहलील ख्यालात  थमा  जाते  हैं
नज़र  करती  हूँ  खुद  को  ही  अपने  ही  ऐब  और आसार (impression) दिल -ए -जूनून  पर  मुस्कुरा  जाते  हैं
दिल  क़ि  ख्वाइश  शब्  भर   तुझसे  तकल्लुम (conversation) के  ख़ुशी  में  अश्क  आमेज़  हो  ही  जाते  हैं



चिनार  क़ि  दरखत के  पत्तों  से  झरोखे  तक  छन के  आती  धूप  ये  नीम  क़ि  ठंडी  छावं
देश  परदेश  जाए  कहीं  भी   फिजा   पर  यादों  के  बादल  उमड़  ही  आते  हैं
महफ़िल  ही  नही  हिज्र  के  मौसम  में  भी  हर  हार्फ़  अपनी  गोयाई  दिखा  ही  जाते  हैं
कुर्बान  जाऊं  हर  हार्फ़   हर  ज़ज्बात  पर  जो  हर  हाल  में  जीने  क़ि  अदा  सीखा  ही  जाते  हैं



दिल -ए -गुलिस्तान  में  तमन्ना  मचलती  है  आरमां भी  पिघल  ही  जाते  हैं
ओस  क़ी बूंद  पत्तों  पर  ठहरा  देख  कुछ  लम्हात  तबियत मरगूब (Like) कर   ही  जाते  हैं
रुत  पीले  पत्तों  क़ी  शाम  पुरवाई  कार -ए -मोहब्बत  से  सरापा  भर  ही  जाते  हैं
फलक  क़ी  सुहानी  जार  शब्  तक  पिघल  रंगत -ए -चांदनी  ले  आसूदा -ए -बिनाई  (satisfaction of sight) में  बदल  जाते  हैं

सारा

खिलते हँसते और मुस्कुराते !!

छलकते  महकते  गुनगुनाते  ये खूबसूरत  रिश्ते
कभी ठंडी छावं दे कभी अपना ही दामन सरकाते रिश्ते
बड़े ही अजब गजब है ये इंसानी रिश्ते




कभी खिलते हँसते और मुस्कुराते रिश्ते
कभी पराये दर्द अपनाते कभी पल में पराया करते
कभी खामोश होते कंही खमोश कर देते
 बड़े  ही अजब गजब है ये इंसानी रिश्ते



 कभी अपने खून से  ही सीचते कभी खून खीचते
 कभी यादों में बसते कभी  हवा में उड़ते रिश्ते
 कही एक पल ठहरते कही दूर तलग वीरानगी देते रिश्ते
 बड़े  ही अजब गजब है ये इंसानी रिश्ते



खुद को कंहा रखूं मै ए दिल !
दामन दामन बिखर के  आये है जो रिश्ते
कितने बेबस कितने है खोखले रिश्ते
बड़े  ही अजब गजब है ये इंसानी रिश्ते




कभी दरिया से लगते कभी आसमा छूते
कभी दिलों में ज़ख़्म देते कभी नासूर बनते
बेहाल बेअदब बेमुर्वत ये ख़ूनी रिश्ते
बड़े  ही अजब गजब है ये इंसानी रिश्ते
______सारा

क्यूँ !!!!

इस हरे भरे वन में क्यूँ अब मन लगता नही
गुलों पर शबनम की बूंदें आँखों को ठंडक देती नही
हरी दूब पर नंगे पाँव चलूँ तो अब ये सुहाता नही
वज़ह क्या तलाशूँ खुद में खुद ही क्यूँ नज़र आता नही



प्रकृति की छटा तो ऐसी ही थी अपने वतन की
फ़िर क्यूँ ये परिंदों का उड़ना दिल को लुभाता नही
चांदनी आती तो है पर तारों का झिलमिलाना
यूँ चाँद को चकोर का निहारना अब दिल में समाता नही


रास्ते बहुत लम्बे से है आसमान दूर तलक फैला
बादलों का यूँ उस पर तैरना अब बेचैन करता नही
झील के ठहरे पानी सा मन भी कहीं ठहरा सा लगता है
अब ये झरनों का गिरना बहना क्यूँ अरमा कोई जगाता नही


किरने भी झरोखों तक आती हैं सौ बातें कर लौट जाती हैं
हवा की वो भीनी भीनी खुशबु भी क्यूँ मन को महकाता नही
वो नीम की गहरी ठंडी छावं तो है अब भी आँगन में
हर शाम की तरह अब परिंदों का झुण्ड क्यूँ इधर आता नही




सारा