यूँ लम्हा दर लम्हा दिन गुज़र रहा है
वक़्त का क्या है रेत सा मुठ्ठी से सरक रहा है
कंहा खोये हो तुम मेरी हर याद में तुमसा ही कोई महक रहा है
जाने क्यों ऐसा लगता है तुम्हारे ज़ेहन से मेरी यादों का काफिला गुज़र रहा है
एक वो पल ठहर सा गया है या मेरी यादों की सिलवटों में कुछ उलझ रहा है
जब भी सुलझाऊँ उलझनों को मेरी ख्यालों के दयार में तू ही तू आ के बस रहा है
शब् -ए -स्याह क्या है सेहर -ए - नूर क्या अब इल्म नहीं जाने किस खार में अब दिल उलझ रहा है
आँखों की कोरों में ठहरी है नमी उसकी ही वो सावन की फुहारों सा ताजगी दे रहा है
हलक में ठहरा है जाना उसका दूर होकर भी वो मेरी मोहब्बत को उम्र दे रहा है
ले गया है साथ वो अपने मेरा सब्र -ओ -करार भी लफ्ज़ नहीं कहूँ क्या दिन कैसे गुज़र रहा है
तन्हाई के इस सफ़र में ख्वाबो -ख्यालों की महफ़िल में आकर वो न जाने कैसा नूर भर रहा है
ज़ेहन आबाद हो रहा है बीते लम्हों से वो पलकों की मोती बन हथेलिओं पर गिर के बिखर रहा है
सारा
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